मानवता के बारे में असीम करुणा, मानवीय जीवन को छूने वाली सर्वव्यापकता का बुनियादी विचार, दो व्यक्तियों और औरत-मर्द के बीच अंतर ना रहे, यह ख्वाहिश तथा अन्याय के प्रति संघर्षमय क्रोध आदि बातें लोहिया के जीवन में मिलती हैं। गुजरी सदी के पूर्वार्ध में नारी सशक्तिकरण को लेकर आज जैसी हलचल नहीं थी। मुट्ठी भर पढी-लिखी कुलीन परिवारों की महिलाओं में मर्दवादी वर्चस्व को लेकर छटपटाहट तो थी पर वह भी बागी होने से हिचकती थीं। ग्रामीण औरतों की हालत और भी बदतर थी। पुरुष की सहचरी होने की जगह उनमें सेविका होने का बोध था।
औरतों को जगाते रहे लोहिया
डॉ. लोहिया हर तरह की गुलामी के दुश्मन थे। औरतों के नाक-कान छिदवाने की प्रथा के वह विरोधी थे। वह नाक-कान छेदन को मर्दवादी दासता का संस्कार मानते थे।
महिलाओं के बीच बहुत बार चर्चा के दौरान उन्होंने इस बारे में उन्होंने अपने तर्कसंगत विचार रखे। …..
नयी जान नहीं लायी जा सकेगी “
आत्मा के पतन के लिए जाति और औरत, ये दो कटघरे मुख्यतः जिम्मेदार हैं। जब तक शूद्रों, हरिजनों और औरतों की सोई हुई आत्मा नहीं जगती और जतन तथा मेहनत से उसे फलने-फूलने और बढाने की कोशिश नही होगी तब तक हिंदुस्तान में किसी तरह नयी जान नही लायी जा सकेगी। हिंदुस्तान के गांव की औरतों की यातना तो यह है कि सूर्योदय के पहले या सूरज के डूबने के बाद शौच के लिए पानी भी दूर से लाएं।
” द्रोपदी जैसी हो नारी “ भारतीय नारी द्रौपदी जैसी हो जिसने कभी भी पुरुषों से दिमागी हार नहीं खाई। नारी को गठरी के समान नहीं बनाना है बल्कि वक्त पर पुरुषों को गठरी बना कर ले चले।”
नारी को आदर देना जानते थे तुलसी : मानस की एक चौपाई – ढोल, गंवार……के आधार पर तमाम आलोचक गोस्वामी तुलसीदास को महिला विरोधी करार देते हैं लेकिन इस धारणा के ठीक उलट समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया का मानना था कि तुलसीदास एकमात्र ऐसे कवि थे जो नारी को आदर देना जानते थे। 1962 के चुनाव की हार के बाद डॉ. लोहिया चित्रकूट पहुंचे। मई – जून की झुलसाने वाली गर्मी में कुछ बुद्धिजीवियों के साथ राजापुर में तुलसी के मंदिर पहुंचे। वहां अयोध्या कांड की हस्तलिखित पांडुलिपि भी देखी। यह कहानी भी सुनी कि तुलसीदास का विवाह यमुना पार के गांव में हुआ था। रत्ना की प्रेम गाथा भी सुनी। काफी रस लेते रहे। लोहिया यमुना को राग और रस वाली नदी मानते थे। सरयू को मर्यादा और गंगा को भक्ति की। लोहिया ने कहा कि तुलसी एकमात्र ऐसे कवि थे, जो नारी को आदर देना जानते थे। वह नारी की पीडा के सहभागी भी थे।
लोहिया जयंत के कथा प्रसंग की एक चौपाई पर मुग्ध थे – ‘ एक बार चुनि कुसुम सुहाये, निज कर भूषण राम बनाये। सीतहिं पहिराये प्रभु सादर, बैठे फटिक सिला पर सुंदर।’ वह मानते थे कि पत्नी को सादर पहनाने की बात कोई छोटा कवि नहीं लिख सकता। प्रेमिका के लिए तो अपने हाध से भूषण बनाने की बात तो बहुत मिलती है पर पत्नी को, पति आदर से पहनाये, ऐसा प्रसंग कहीं नहीं मिलता। प्रेमिका तो विशेष है, पत्नी सामान्य जीवन की सहचरी है। असली कवि की परख इस सामान्य पद में विशेष भाव पैदा करने में होती है।
संकलन – जितेंद्र दीक्षित।
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